डायमंड या बड़ी गाड़ी नहीं...', चश्मे बद्दूर के बाद दीप्ति नवल के स्टारडम पर लगा ग्रहण, इस बात का है पछतावा
बॉलीवुड एक्ट्रेस दीप्ति नवल (Deepti Naval) ने अपने दौर की लेजेंड थीं। चश्मे बद्दूर गुड्डू साथ साथ और कथा जैसी फिल्मों में काम कर चुकीं दीप्ति नवल ने दैनिक जागरण के साथ बातचीत में अपने करियर के बारे में बात की है। उन्होंने बताया कि आखिर क्यों उनका स्टारडम कम हो गया था।

HIGHLIGHTSचश्मे बद्दूर से मिला स्टारडम बाद में हुआ था कम
एक्टिंग के बाद फुल टाइम लेखिका बन गई हैं दीप्ति
तारा एंड आकाश मूवी में दिख रही हैं दीप्ति नवल
लेखक अब कलाकार से ज्यादा हावी हैं। यह मानना है चश्मे बद्दूर, कथा और साथ साथ फिल्मों की अभिनेत्री दीप्ति नवल (Deepti Naval) का। वह आज (शुक्रवार) रिलीज हो रही फिल्म तारा एंड आकाश : लव बियोंड रियल्म्स (Tara And Akash: Love Beyond Realms) में नजर आएंगी। अब उनका ज्यादा समय किताबें लिखने में बीतता है। अच्छे रोल के लिए किताबों की दुनिया से निकलने वाली दीप्ति नवल ने दैनिक जागरण से खास बातचीत की है।
इस फिल्म के ट्रेलर में आप पछतावे की बात कर रही हैं। जिंदगी में किसी बात का पछतावा रहा है?
जो कहते हैं कि मुझे कोई पछतावा नहीं हैं, वो सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन वह सच नहीं होता। छोटी-छोटी बातों पर पछतावा होता है। जैसे अगर किसी को दुख पहुंचाते हैं और उसका कोई पछतावा है तो अच्छी बात है। सत्यजीत राय, मृणाल सेन और श्याम बेनेगल जैसे कई महान फिल्मकारों के साथ काम न करने का पछतावा रहा है।
आपने कहा था कि पिछले कुछ साल किताब लिखने में चले गए। क्या बीच में फिल्मों के लिए समय निकालना जरूरी होता है?
हां, क्योंकि मैंने अपने करियर में दूसरी चीजों के लिए हमेशा समय निकाला है, फिर चाहे पेटिंग हो या लेखन हो। ए कंट्री काल्ड चाइल्डहुड : ए मेमायर (दीप्ति के बचपन पर आधारित) को लिखने में मुझे पांच साल लगे। पहले मेरे लिए फिल्मों से लेखन के लिए समय निकालना जरूरी होता था, अब मैं फुल टाइम लेखक हूं। उसके साथ अच्छा रोल आता है, तो कर लेती हूं।

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तो अगली किताब में जीवन का कौन सा हिस्सा होगा?
अब मैं अपने सिनेमाई अनुभवों को लिखना चाहूंगी। जीवन के 70वें वर्ष में कदम रखने के बाद लगता है कि हे भगवान सब तो गुजर गया। फिर लगता है कि क्या-क्या रह गया है, वो भी कर लेते हैं। अगली किताब मेरे सिनेमा के सफर पर आधारित है। हालांकि सिनेमा का सफर मुझे उतनी गहराई से याद नहीं है, जितना बचपन याद था। अब उम्र के ऐसे पड़ाव पर हूं, जहां हाल फिलहाल की चीजें भूलने लगी हूं।
सिनेमा का कौन सा दौर है, जो अच्छे से याद है, किताब में भी शामिल होगा?
सच कहूं तो मैंने बहुत सी डायरी लिखी थी। मुझे लगता है कि वही रिलीज कर देनी चाहिए। पिछली सदी के आठवें दशक में जब मुझे स्टारडम मिला था, तो मैं हर दिन की बात डायरी में लिखती थी। उसके बाद चुनाव संभल कर करने लगी, तो चश्मे बद्दूर के साथ मिला स्टारडम कम हो गया था। मैं ट्रेकिंग पर निकल जाती थी। मुंबई में रहती नहीं थी, कोई पूछता था, तो पता चलता था कि मैं तो लद्दाख में हूं। मैं आज भी कमरे में नहीं बैठ सकती हूं। जब पहले ट्रेक करती थी, फोटोग्राफी भी करती थी, तब लगता था कि जी रही हूं। किसी रोल का इंतजार नहीं करना है। अनुभव इकठ्ठा करने की प्रक्रिया रुकनी नहीं चाहिए।
आपने रोमांटिक गाने भी किए, सार्थक सिनेमा का हिस्सा भी बन पाईं। उस दौर में टाइपकास्ट होने से कैसे बचीं?
मैंने यह सोच नहीं रखी कि पैसे कमाने हैं, तो हर फिल्म साइन कर लो। एक दिशा पकड़कर चलने के लिए कई बलिदान देने होते हैं। बहुत सा काम छोड़ना पड़ता है। यह चुनाव आपका होता है कि दिखावे में नहीं रहूंगी। डायमंड या बड़ी गाड़ी नहीं चाहिए।
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आपको ऐसा करने का आत्मविश्वास किसने दिया?
मेरी मां ने। मेरे माता-पिता दोनों पढ़ाते थे। उनके उसूल मजबूत थे, जिस पर समझौता नहीं किया। उनमें किसी बात का लालच नहीं था कि हाय वो साड़ी खरीद लूं। (हंसते हुए) मुझे साड़ियों का लालच है। वही एक कमजोरी है, मुझे साड़ियां बहुत पसंद है।
अपनी मेमायर (संस्मरण) को फिल्में में ढालने का ख्याल आता है?
हां, अगर कोई बनाना चाहे तो मैं उसके लिए तैयार हूं। बड़े आराम से उस पर फिल्म बन सकती है। अब लग रहा है कि बननी चाहिए, क्योंकि उसमें बचपन के कुछ किस्से ऐसे हैं, जो विजुअल में अच्छे लगेंगे। 12-15 साल की कोई नई लड़की मेरा रोल कर पाएगी।
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