क्या है जाति जनगणना, आखिरी बार कब हुई थी और अब क्यों जरूरी? जानिए हर सवाल का जवाब
केंद्र सरकार ने आगामी जनगणना में जातीय जनगणना कराने का एलान किया है। जाति जनगणना राष्ट्रीय जनगणना के दौरान व्यक्तियों की जाति के आधार पर आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया है। भारत जैसे देश में जाति सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक संरचना का अभिन्न हिस्सा रही है। आइये अब आगे जानते हैं कि इसके इतिहास और वर्तमान में इसके महत्व के बारे में।
केंद्र सरकार ने आगामी जनगणना में जातीय जनगणना कराने का एलान किया है। पिछले कुछ सालों के दौरान विपक्षी दल जातीय जनगणना की मांग को चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहे थे। आइये जानते हैं कि इसके इतिहास और वर्तमान में इसके महत्व के बारे में।
2014 में कर्नाटक की सिद्धरमैया सरकार ने किया जातीय सर्वेक्षण, जारी नहीं की रिपोर्ट
46 लाख से अधिक हो चुकी है जातियों की संख्या केंद्र सरकार के अनुसार, 1931 में थी 4,147 जातियां
4.10 लाख हो चुकी है महाराष्ट्र में जातियों की संख्या, 1931 में थी 494
क्या है जातीय जनगणना?
राष्ट्रीय जनगणना के दौरान लोगों की जातीय पहचान के आधार पर व्यवस्थित तरीके से आंकड़े जुटाए जाते हैं, यही जातीय जनगणना है। भारत में ऐतिहासिक रूप से जातियां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करती रही हैं।
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ऐसे में जातियों के आंकड़ों से पता चल सकता है कि कोई खास जाति किन क्षेत्रों में है, उनकी सामाजिक- आर्थिक स्थिति क्या है और विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व कितना है। इस जानकारी का इस्तेमाल सामाजिक न्याय और उनके कल्याण के लिए नीतियां बनाने में किया जा सकता है।
जातीय जनगणना का इतिहास भारत में पहली बार 1881 में जनगणना हुई थी। उस समय भारत की आबादी 25.38 करोड़ थी। तब से ही हर 10 साल पर जनगणना हो रही है।1881 से 1931 तक जातीय जनगणना हुई। 1941 में जातीय आंकड़े जुटाए गए लेकिन इनको सार्वजनिक नहीं किया गया।

आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई थी। उस समय सरकार ने तय किया कि सिर्फ अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आंकड़े ही जुटाए जाएंगे। सरकार का मानना था कि जातियों की गणना से समाज विभाजित होगा और राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी।
1961 में राज्यों को दी गई सर्वेक्षण की अनुमति1991 में राज्यों को ओबीसी की अपनी सूची तैयार करने के लिए सर्वेक्षण की अनुमति दी गई। ओबीसी जातियों को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए विशेष उपायों की मांग को ध्यान में रख कर यह अनुमति दी गई थी। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना नहीं की गई।

2011 में हुई जातीय जनगणना 2011 में यूपीए सरकार ने समाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के लिए करीब 4.5 हजार करोड़ रुपये खर्च किए थे लेकिन जातियों के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। 1931 के बाद जातियों के आंकड़े जुटाने का यह पहला प्रयास था।
ये राज्य करा चुके हैं जातीय सर्वेक्षणबिहार, तेलंगाना और कर्नाटक अपने स्तर पर जातीय जनगणना करा चुके हैं। इनका उद्देश्य राज्य की आरक्षण नीतियों और कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए आंकड़े जुटाना था।
बिहार के जातीय सर्वेक्षण 2023 से सामने आया कि राज्य की कुल आबादी में ओबीसी और अत्यंत पिछड़े वर्गो (ईबीसी) की हिस्सेदारी 63 प्रतिशत से अधिक है।
जातीय जनगणना से फायदाइसलिए अहम भारत में जातीय जनगणना का मतलब सिर्फ जातियों की संख्या गिनना नहीं है। इसकी मांग के पीछे राजनीतिक मकसद है। इसके गहरे सामाजिक प्रभाव हो सकते हैं। इससे राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति प्रभावित हो सकती है। जातीय जनगणना कराने के पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों के आंकड़ा जारी होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों के आंकड़े नहीं आते। ऐसे में ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल है।
यह तर्क भी दिया जाता है कि आबादी के सही आंकड़े पता होने से उनके सामाजिक आर्थिक विकास के लिए योजनाएं बनाने में आसानी होगी।
जातीय जनगणना से नुकसानएक वर्ग का मानना है कि जातीय जनगणना की मांग के पीछे मकसद पिछड़ी जतियों को सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना नहीं है, बल्कि समाज को विभाजित करके राजनीतिक फायदा हासिल करना है। इस वर्ग का कहना है कि सरकार के पास पहले से जरूरी आंकड़े हैं, इनके आधार पर कमजोर वर्गों के सामाजिक आर्थिक तरक्की के लिए नीतियां और कार्यक्रम प्रभावी तरीके से लागू किए जा सकते हैं और ऐसा हो भी रहा है। ऐसे में जातीय जनगणना से देश में जातीय विभाजन और गहरा होगा और इससे समाज में तनाव और कटुता पैदा होगी।
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